Wednesday, July 14, 2010

ज़िन्दगी कल ज़िन्दगी आज....

काश हम भी बच्चे होते, ये बात हर किसी के जेहन में आते ही एक प्यारी सी अनुभूति दिल दिमाग में एक विचलन पैदा कर देती होगी , नहीं ! एक ऐसा एहसास जिसे हम बार-बार महसूस करना चाहते हैं , बार-बार उसे जीना चाहते हैं पर चाहकर भी हम उस पल को नहीं जी सकते क्योकि समय की रेत को कितना भी मुट्ठी में पकड़ के रखने की कोशिश की जाये वो फिसलती ही जाती है और गुजरता हर लम्हा हमें अपने ही उस एहसास से दूर करता जाता है जिसे जीने की ख्वाहिश हम हमेशा करते हैं.
ज़िन्गागी की रेस में हम कितनी दूर आ गए हैं पर रफ़्तार है जो कम होने का नाम नहीं लेती हमें एक पल को ठहरने की इजाजत नहीं देती. अच्छी से अच्छी नौकरी पाने की होड़ , ज्यादा से ज्यादा बैंक बैलेंस बनाने की जुगत, क्रेडिट कार्ड से शौपिंग , मोबाइल , लैपटॉप , कार, बंगला सब कुछ हासिल कार लिया हमने फिर भी ना दिन को सुकून ना रात को चैन . आखिर यही सब तो चाहते हैं हम फिर भी मन क्यों बार-बार किताब-कापियों से भरे बसते पर जाता है , क्यों याद आता है स्कूल का वह पहला दिन , नयी क्लास , कुछ पुराने तो कुछ नए दोस्तों से मिलाने कि ख़ुशी , रेसस में वो टिफिन से लंच करने की उत्सुकता , होम वर्क पूरा ना करने पर मैडम द्वारा कान पकड़ क़र क्लास में खड़ा करने की सजा , क्लास शुरू होने से पहले की वो प्रार्थना " तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो तुम्ही हो बन्धु सखा तुम्ही हो..." क्यों याद आता है वो कापियों से पीछे का पेज फाड़ना और जहाज बनाकर उड़ना , बरसात में कागज़ की नाव बनाकर चलाना ....
हमने ईट, गारे, सीमेंट का घर तो बना लिए पर बचपन में बनाया गया मिटटी-बालू का वह छोटा सा घरौंदा बिखर गया . आज संगीत की धुनें इतनी तेज़ हो गई है कि दादी-नानी की वो मद्धम लडखडाती आवाज नहीं सुनाई देती जिनसे कहानियां सुनकर हम रात की ख़ामोशी में नींद के आगोश में सो जाया करते थे. पर आज वो नींद कहाँ ?
आज हम सेंसेक्स के उतर-चढाव , नफा- नुकसान में इतने ब्यस्त और थके हुए हैं कि आसमान में एक नज़र डालकर टिमटिमाते तारों की सुन्दरता भी नहीं देख पाते जिन्हें कभी गिनते-गिनते हम थका नहीं करते थे.

भविष्य के बारे में सोचते-सोचते हम इतना आगे आ गए कि अपने अतीत को पीछे किसी मोड़ पे ही छोड़ आये और जब कभी हम शांत मनं से अतीत के उन पलों को पलटते हैं जिसमे कहीं हमारा बहापन छुपा होता है तो आँखों से खुशियों की कुछ बूँदें अनायास ही निकल जाती हैं और शायद हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं------ ये कहाँ आ गए हम

फिर से जी करता है उस बचपन में लौट जाने को, फिर से मन करता है बरसात में नाव चलाने को , फिर दिल चाहता है गुड्डे गुड़ियों की दुनिया सजाने को.
वाकई हम बहुत दूर आ चुके हैं उस बचपन से उस बेफिक्री से जब हमें किसी बात की चिंता नहीं हुआ करती थी, ना भूत का डर ना भविष्य की ख्याल बस अपने ही रंगों में रंगे थे , अपनी ही दुनिया में मस्त पंछी की भांति हवाओं में गोते लगाया करते थे , ज़िन्दगी का सबसे खुशनुमा पल अगर कोई है तो वो हमारा बचपन ही है ,
                     

Tuesday, July 13, 2010

राम तेरी गंगा मैली .......

राजकपूर जिन्हें हिंदी सिनेमा का पितामह कहा जाता रहा है ने जब इस फिल्म का निर्माण किया होगा तो शायद उन्हें भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनकी फिल्म का शीर्षक आज के भारत में गंगा कि स्तिथि को चरितार्थ करेगा . हाँ मै बात कर रहा हूँ गंगा नदी की पर ये मेरी बात नहीं है बल्कि हम सबकी बात है लेकिन सिर्फ बात करने से क्या होता है बाते तो भूल जाती हैं तो हमें क्या करना चाहिए ? शायद हमें इसे एक विषय के रूप में देखने की जरुरत है.


           मुझे याद है एक बार देव दीपावली के समय मै बनारस में था. देव दीपावली जो बनारस के दशास्व्मेघ घाट पर बड़े भव्य रूप में मनाई जाती है और गंगा आरती का भव्य व् मनमोहक दृश्य लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है . आरती देखने के लिए लाखों कि भीड़ एकत्र थी मै भी इसी भीड़ का हिस्सा बना और घाट के सबसे उपरी चबूतरे पर जहाँ पुलिस बल तैनात थे खड़ा हो गया. लोग गंगा आरती देखने में इतने मग्न थे कि भीड़ कि ;धक्का मुक्की की परवाह नहीं थी. मुझे भीड़ से परहेज है इसलिए आरती समाप्त होने से पहले ही मै वहां से चला आया. अगले दिन सुबह मै फिर वहां पंहुचा तो देखता हूँ कि घाट की सफाई चल रही है  रात भर में घाट पर एकत्र पत्तल,दोने, गुटखों के छिलके, जली हुई सिगरेट ,फूल माला  सब कुछ नदी में बहाए जा रहे हैं, मै वहां से आगे बढ़ा तो देखा एक सज्जन घाट पर दीवार के सहारे पेशाब कर रहे हैं और सामने लिखा है यहाँ पेसब करना मना है , कुछ औरतें, बच्चे घाटों के किनारे स्नान कर रहे हैं तो कुछ लोग कपड़ो को साफ़ कर रहे हैं, साबुन का झाग लहरों के साथ धीरे-धीरे बहता जा रहा है . ये प्रसंग देव दीपावली का है पर ऐसा हर रोज बनारस के घाटों पर होता है. मै शून्य में झांकते हुए सोचने लगा - जीवन दायिनी कही जाने वाली गंगा जिसे हम भारतीय माँ की तरह पूजते हैं आज अपने ही अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ क्यों है ?

करोड़ो जीवन को पालने पोसने वाली आज खुद काल के गर्भ में जाने को मजबूर क्यों है ?
इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?
देश के साधू संत या हम सब ?
                कुछ भी कहो सब कहीं न कहीं किसी ना किसी रूप में गंगा के अस्तित्व पर आघात करते आये हैं और हमारा ये प्रयास आज भी जारी है . धर्म तथा पूजा-अर्चना  के नाम पर हम अपनी आस्था तो प्रकट करते हैं पर ये देखना और समझाना भूल जाते हैं कि ऐसा करते वक्त हम कितनी गन्दगी गंगा को भेट चढ़ा देते हैं. फूल-माला , अगरबती कि राख से लेकर लाशों को भी इसमें बहा देने वाले हम अपने इन कर्मों को आस्था का नाम देते हैं. किसी के अस्तित्व की बलि देकर अपनी आस्था प्रकट करना कहाँ का धर्म है- ये सवाल हमें अपने से जरूर करना चाहिए .

यह सिर्फ आकड़ें प्रस्तुत कर देने का विषय नहीं है और ना ही सरकार द्वारा योजनायें बना करने और करोड़ो रुपये खर्चा कर देना गंगा को बचाने का कारगर तरीका है बल्कि ये हम सब की समझ का विषय है और हम सभी के संयुक्त प्रयास के द्वारा ही आज और आने वाले कल में हम गंगा की निरंतर बहने वाली धरा को बनाये रखने में कामयाब हो सकते हैं........