Tuesday, July 13, 2010

राम तेरी गंगा मैली .......

राजकपूर जिन्हें हिंदी सिनेमा का पितामह कहा जाता रहा है ने जब इस फिल्म का निर्माण किया होगा तो शायद उन्हें भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनकी फिल्म का शीर्षक आज के भारत में गंगा कि स्तिथि को चरितार्थ करेगा . हाँ मै बात कर रहा हूँ गंगा नदी की पर ये मेरी बात नहीं है बल्कि हम सबकी बात है लेकिन सिर्फ बात करने से क्या होता है बाते तो भूल जाती हैं तो हमें क्या करना चाहिए ? शायद हमें इसे एक विषय के रूप में देखने की जरुरत है.


           मुझे याद है एक बार देव दीपावली के समय मै बनारस में था. देव दीपावली जो बनारस के दशास्व्मेघ घाट पर बड़े भव्य रूप में मनाई जाती है और गंगा आरती का भव्य व् मनमोहक दृश्य लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है . आरती देखने के लिए लाखों कि भीड़ एकत्र थी मै भी इसी भीड़ का हिस्सा बना और घाट के सबसे उपरी चबूतरे पर जहाँ पुलिस बल तैनात थे खड़ा हो गया. लोग गंगा आरती देखने में इतने मग्न थे कि भीड़ कि ;धक्का मुक्की की परवाह नहीं थी. मुझे भीड़ से परहेज है इसलिए आरती समाप्त होने से पहले ही मै वहां से चला आया. अगले दिन सुबह मै फिर वहां पंहुचा तो देखता हूँ कि घाट की सफाई चल रही है  रात भर में घाट पर एकत्र पत्तल,दोने, गुटखों के छिलके, जली हुई सिगरेट ,फूल माला  सब कुछ नदी में बहाए जा रहे हैं, मै वहां से आगे बढ़ा तो देखा एक सज्जन घाट पर दीवार के सहारे पेशाब कर रहे हैं और सामने लिखा है यहाँ पेसब करना मना है , कुछ औरतें, बच्चे घाटों के किनारे स्नान कर रहे हैं तो कुछ लोग कपड़ो को साफ़ कर रहे हैं, साबुन का झाग लहरों के साथ धीरे-धीरे बहता जा रहा है . ये प्रसंग देव दीपावली का है पर ऐसा हर रोज बनारस के घाटों पर होता है. मै शून्य में झांकते हुए सोचने लगा - जीवन दायिनी कही जाने वाली गंगा जिसे हम भारतीय माँ की तरह पूजते हैं आज अपने ही अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ क्यों है ?

करोड़ो जीवन को पालने पोसने वाली आज खुद काल के गर्भ में जाने को मजबूर क्यों है ?
इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?
देश के साधू संत या हम सब ?
                कुछ भी कहो सब कहीं न कहीं किसी ना किसी रूप में गंगा के अस्तित्व पर आघात करते आये हैं और हमारा ये प्रयास आज भी जारी है . धर्म तथा पूजा-अर्चना  के नाम पर हम अपनी आस्था तो प्रकट करते हैं पर ये देखना और समझाना भूल जाते हैं कि ऐसा करते वक्त हम कितनी गन्दगी गंगा को भेट चढ़ा देते हैं. फूल-माला , अगरबती कि राख से लेकर लाशों को भी इसमें बहा देने वाले हम अपने इन कर्मों को आस्था का नाम देते हैं. किसी के अस्तित्व की बलि देकर अपनी आस्था प्रकट करना कहाँ का धर्म है- ये सवाल हमें अपने से जरूर करना चाहिए .

यह सिर्फ आकड़ें प्रस्तुत कर देने का विषय नहीं है और ना ही सरकार द्वारा योजनायें बना करने और करोड़ो रुपये खर्चा कर देना गंगा को बचाने का कारगर तरीका है बल्कि ये हम सब की समझ का विषय है और हम सभी के संयुक्त प्रयास के द्वारा ही आज और आने वाले कल में हम गंगा की निरंतर बहने वाली धरा को बनाये रखने में कामयाब हो सकते हैं........

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