बुंदेलखंड क्षेत्र जिससे आप सभी वाकिफ होंगे कुछ समय पहले मुझे भी यहाँ आने का मौका मिला ऐसे तो मै बहुत सी जगह जा चुका हूँ पर ये पहला मौका रहा जब मै किसी आदिवासी गाँव ( बिगाई, ललितपुर से ४५ किमी दूर ) में गया जो बाहरी दुनिया से काफी कटा हुआ है" यहाँ मै आया एक प्रशिक्षण शिविर के दौरान यहाँ आने से पहले मै, जिसे ये नहीं पता था कि आखिर इस प्रशिक्षण का क्या मकसद है और एक बात मेरे जेहन में हमेशा बनी रही वो ये कि मै यहाँ क्यूँ हूँ या मेरी मौजूदगी का यहाँ मतलब क्या है पर आज शायद मै यह कह सकता हूँ कि ना मैंने इस प्रशिक्षण के दौरान बहुत कुछ सिखा बल्कि एक ऐसे अनुभव को भी अपने साथ लेकर आया जो कहीं ना कहीं मेरी ज़िन्दगी में कुछ रोशनी देगा.
यूँ तो हर इंसान कि ज़िन्दगी में कुछ ना कुछ कमियां जरुर होती है पर यहाँ के लोगों कि स्तिथि अभावग्रस्त श्रेणी में आती है ऐसा नहीं ये लोग खुश नहीं हैं ये खुश हैं विकास की मुख्य धरा से काफी दूर फिर भी अपनी ज़िन्दगी में मस्त .यहाँ भी बच्चे स्कूल जाते हैं पर तादाद बहुत कम है वजह कई शारी हैं पर मुख्य वजह आर्थिक है. जब चीथड़ों में जवानी ढकी हो और बचपन अर्धनग्न हो तो "स्लेट और चाक " किस काम का फिर भी यहाँ के कुछ छात्र जो पढ़े लिखे हैं वो यहाँ की कामकाजी महिलाओं को पढ़ने का श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं . रोजाना दोपहर में २ घंटे की क्लास में घरेलु महिलाएं एक साथ यहाँ पढ़ने आती हैं और तो और इनके पढ़ने पढ़ाने का तरीका भी बिलकुल अलग है . ऐसे में मुझे भी
इन महिलाओं को
पढ़ाने का मौका मिला हलाकि भाषा की थोड़ी दिक्कत
जरूर रही पढ़ाने का ये अनूठा अनुभव काफी हद तक
संतुष्टि प्रदान करने वाला रहा. पहली बार अबेकस के
माध्यम से गिनती सिखाना काफी रुचिकर तो था ही
और जितनी रूचि से मै पढ़ा रहा था उससे कहीं ज्यादा
रूचि उनके सिखाने में दिखी. सर्दी की धुप और पेड़
की छाँव में बैठ कर उनसे बातें करना उनका अनुभव
जानना और अपने ज्ञान को उनसे बांटना कहीं ना कहीं
सुखप्रद तो रहा पर दुःख की घटा भी घिरती रही छंटती रही.
आभाव कि जमीन पर सिखाने की ललक अपने को मुख्य धरा से जोड़ने की जुगत सराहनीय तो है पर कहीं ना कहीं टीस है जो दृश्य पटल पर एक लकीर खींचती है ....लकीर जो दर्शाती है विकास और पिछड़ेपन की खाई कितनी गहरी हो चली है . हालाजी इस खाई को पाटने का प्रयास जारी है पर इतनी गहराई को भरने में कितना समय लगेगा इसका अंदाजा शायद कोई ना लगा सके पर आशा और उम्मीद की एक किरण अभी भी बाकी है जो शायद इस आभाव/कमी को दूर करने में सफल हो सके.
VIVEK KUMAR SRIVASTAVA
PROJECT CO-ORDINATOR
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