Thursday, May 24, 2012

............................................जीवन और संघर्ष..................................

संघर्ष और  जीवन के मायने जितने गहरे उतने  सरल भी है , जितने उलझे उतने ही  स्पष्ट भी है स्वाभाविक है इनके बीच का रिश्ता अटूट है दोनों एक दुसरे के पूरक है एक के  बिना दुसरे का ना कोई अस्तित्व है ना कोई मायने . हममे से बहुत से लोग अक्सर ये सोचते है कि ये संघर्ष कब ख़त्म होगा पर ये भूल जाते है इसके  बिना जीवन का क्या होगा . जीवन और संघर्ष को एक शब्द के रूप में  लिखना जितना आसान है उतना मुश्किल है उसे शब्दों में बुनकर परिभाषित करना .

हमने  अपने जीवन के हर पल में  किसी ना किसी रूप में संघर्ष किया और करते जा रहे है ... जिसकी शुरुआत हमारे जन्म से शुरू होकर मृत्यु तक निरंतर  चलती रहती है। जब कभी फुरसत के कुछ क्षण में हम अतीत के पन्नो में झांकते है तो अनगिनत ऐसे पल पल आखों के सामने घूमने लगते जिनमे हमने संघर्ष किया . स्कूल की पढाई में अव्वल आने के लिए संघर्ष तो कॉलेज में सबसे आगे रहने के लिए संघर्ष , उनिवेर्सिटी में गोल्ड मेडल पाने के लिए तो कभी खेल के मैदान में चैम्पियन कहलाने के लिए संघर्ष।

पढाई के बाद नौकरी पाने के लिए भी हमने संघर्ष कम नहीं किया सैकड़ों बार नाकामयाबी का स्वाद चखने के बाद भी कामयाब होने के लिए संघर्ष और जब कामयाबी मिल गए तो उसे जीवंत रखने के लिए संघर्ष .
कभी-कभी तो ऐसा लगता है हमने सारी ज़िन्दगी सिर्फ संघर्ष ही किया जीवन जिया ही नहीं पर वास्तविकता तो ये है कि  संघर्ष ही जीवन के पहली और आखिरी सीढ़ी है ..
ये एक सिक्के के दो पहलू  है जिनका आपसी मेलजोल इतना घनिष्ट है कि एक के बिना दूसरे का कोई महत्त्व ही नहीं। एक अगर आईना है तो दूसरा उस आईने में दिखने वाली तस्वीर , एक अगर शरीर है तो दूसरा उसकी परछाई। हम चाहे या ना चाहे इन्हें एक दूसरे  से अलग करके सोचना नामुम्कीम है।

हम हरे या ना रहे सृष्टि में जब भी जीवन पनपेगा संघर्ष स्वत: ही उसके साथ उपजेगा . 
ये सागर तल पर चलने वाली वो किश्ती है जिसे लहरों के थपेड़ों को सहना भी है , साहिल पे पहुचना भी है।

Sunday, August 7, 2011

ज़िन्दगी-दोस्ती-दोस्त

रिश्तों के बिना ज़िन्दगी की कल्पना करना ठीक वैसा ही है जैसे जल बिना जीवन.

अनगिनत रिश्तों के खुबसूरत मोटी जब विश्वास के अटूट धागे में पिरो दिए जाते हैं तो ज़िन्दगी के हर आयाम खुशियों के एहसास से महक उठते हैं. ऐसे ही रिश्तों में एक रिश्ता है दोस्ती ...
 
 ये वो अनमोल मोती है जिसकी चमक ज़िंदगी के आगाज़ से ज़िंदगी के अंत तक कभी फीकी नहीं पड़ती . हमने स्कूल से लेकर कॉलेज और अपने प्रोफेशन में अनगिनत दोस्त बनाये , कुछ अब भी साथ हैं, कुछ बिछड़ गए , कुछ दूर हैं,मजबूर हैं, पर ख्यालों में मौजूद हैं तो कुछ हमारे अतीत के पन्नों में एक धुंधली सी तस्वीर बन कर रह गए. हममे से बहुत इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे कि हमने अपने दोस्तों के साथ मिलकर ऐसी न जाने कितनी शरारतें स्कूल कालेजों में की जो उस समय क्षम्य  नहीं थीं और शायद आज भी न हों. पर जब हम ब्लैक बोर्ड  पर टीचर्स का कार्टून बनाते या उनके ऊपर उटपटांग कमेन्ट लिखते तो हम ख़ुशी के अलग ही संसार में होते थे. क्लास में छोटी-छोटी चिट पर "क्या पकाऊ लेक्चर है यार " लिखकर एक दूसरे को पास करते और अन्दर ही अन्दर हँसते उस वक़्त हमें इस बात का डर नहीं रहता था कि अगर पकडे गए तो क्या होगा. क्लास बंक करते फ़िल्में देखने जाना, क्लास के बाहर रहकर गप्पे मारना , मस्ती करना , टीचर्स की नक़ल करना और ना जाने कितने नामकरण हमने उन टीचरों के किये . पर अब वो दौर कहाँ वो मस्ती मजाक कहाँ. .. जब कभी हम उदास या परेशान होते तो सबसे पहले हमारे दोस्त ही पूछते " क्या हुआ बे किसने छेड़ दिया" फिर एक लम्बी हंसी का सिलसिला और आधी उदासी स्वतः ही गायब.. पर अब वो बात कहाँ..

जब कभी खट्टी-मीठी शरारतें और गुदगुदा देने वाले वो लम्हे जेहन में आते हैं, मन रोमांच से भर उठता है और बस यही दिल करता है कि सारे दोस्त फिल से मिले और एक बार फिर से वो कहानी दोहराएँ जो बहुत पहले हमने ही लिखी अपनी शरारतों और मस्ती मजाक से....
पर ये भी सच है आज भी हर तरफ एक नयी कहानी गढ़ी जा रही है.........
दोस्तों के साथ, दोस्तों के लिए, दोस्तों के द्वारा और दोस्ती के नाम----

"जब तक जिंदगियां रहेंगी,दोस्ती रहेगी, दोस्त रहेंगे."


Thursday, August 4, 2011

अंजली- एक इंतज़ार

काफी दिनों से इस उधेड़बुन में लगा रहा कि कुछ लिखूं पर लिखता भी क्या? क्या वास्तव में मेरे पास कुछ है लिखने को . कभी-कभी इंसान की ज़िन्दगी में शायद ऐसे भी लम्हे आते हैं कि कहना तो बहुत कुछ चाहता है पर शब्दों या फिर यूँ कहें एहसास से भरे लफ़्ज़ों की कमी महसूस करने लगता है और शब्दों का मायाजाल एक मकडजाल बनकर रह जाता है फिर भी लिख रहा हूँ, लिख भी क्या रहा हूँ बस एक कोशिश कर रहा हूँ. ना जाने कितने ख्याल कितनी बातें और अनगिनत एहसास मन के सागर में गोते खा रहे हैं जो  कभी लहरों के साथ ऊपर दृश्यमान हो जाते हैं तो कभी आख्नों से ओझल, ये एहसास भी किसी जुगनू की भांति हो गए हैं. ये कैसी उलझन है जो सुलझाती ही नहीं पर ये उलझन भी तो मेरी ही रचना है मै ही इसका जन्मदाता और मै ही इसका रचयिता हूँ.


                            आज जो मै कहने की कोशिश कर रहा हूँ काश उस "पल" कह दिया होता तो शायद आज उलझन की इस भंवर में न फंसा होता और ना ही एक असहाय जीव की तरह उस साहिल को देखता जो नज़रों के सामने, पर, मेरी पहुँच से बहुत दूर. पर कर भी क्या सकता हूँ समय की रेत मुट्ठी से निकल जाने के बाद क्या हो सकता है,?  पर उस दिन उस "पल" मैंने बहुत सोच समझ के फैसला लिया था पर आज ऐसा मालूम पड़  रहा है जैसे कभी-कभी इंसान की सोच बी ही उसे धोखा दे जाती है. पर इंसान की सोच का माध्यम भी तो खुद इन्सान होता है तो क्या मैंने अपने को धोखा दे दिया, शायद नहीं अगर ऐसा होता तो आज ये सब कुछ न लिख रहा होता.

कितने साल बीत गए और इतने सालों में मेरी ज़िन्दगी ने कितने उत्तर-चढाव देखे कितने अनुभवों को अपने में आत्मसात करता आया और इतनी दूर चला आया फिर भी मंजिल नहीं दिखाती, कुछ दिखता है तो वो "पल" .  मै हमेशा इस भ्रम में पड़ा रहा कि मैंने उस "पल" को बहुत पीछे छोड़ दिया पर सच तो ये है कि जिस राह को मै चुनता आया उस राह के हर मोड़ पर वो "पल"  मुझे दिखाई देता है शायद तुम्हारी तरह उससे भी एक रिश्ता सा  जुड़ गया है, जो मेरे वर्त्तमान और आने वाले भविष्य में हमेशा मेरे साथ रहेगा. पता है मैंने इतने सालों में उस पर को हमेशा हराने की कोशिश करता रहा पर हर बार परिणाम  सिर्फ एक मेरी हार , दरअसल मै तुम्हे हराने की कोशिश करता रहा और हमेशा हारता रहा, मै हमेशा से यही समझता और विश्वास करता आया कि हर इंसान अपने में पूरा होता है पर हर बार आईने में मै अपने को अधूरा ही पाया  और आज भी हूँ पर इस "पल" के जरिये तुमसे हमेशा जुड़ा रहूँगा इस उम्मीद के साथ कि वो पल कभी आये जब हम मिल सकें.

एक इंतज़ार के साथ............ जो तुम हो तो खिलाता हर रंग है,
                                           जो नहीं तो दुनिया बेरंग है,
                                           ..................................................

                                           जो तुम हो तो इन आंसुओं के भी मायने हैं,
                                           जो नहीं तो ये ज़िन्दगी बेमायने है,................

तुम्हारा .............. 

Wednesday, June 1, 2011

एक कदम - बदलाव की ओर

ऐसे तो समाज में बहुत सारे मुद्दे या विषय हैं जिनके बारे में सोचने और उन पर काम करने की जरुरत है और उनमे से एक अहम मुद्दा है "महिला सशक्तिकरण" का . जब हम एक सशक्त महिला की बात करते हैं तो ;किस तरह की छवि हमारे जेहन में बनती है या फिर यूँ कहें की एक सशक्त महिला कैसी होनी चाहिए तो निश्चित तौर पर हमारे विचार और हमारे जेहन में मौजूद छवि भिन्न-भिन्न होगी जो वास्तविकता है पर फिर भी अगर हम एक आदर्श चित्रण करें तो हम पाएंगे कि एक सशक्त महिला सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तौर पर स्वतंत्र  हो और इन सभी क्षेत्रों में वो स्वावलंबी हो.

पर क्या सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक रूप से मजबूत कोई महिला हो सकती है जब तक कि उसे अपने हक़ और अधिकार की जानकारी ही न हो शायद हममे से बहुतों का जवाब होगा नहीं ऐसे में जरूरी है कि उन महिलाओं को उनके हक़ और अधिकार के बारे में जानकारी दी जाये.

ग्रामीण परिवेश में रह रही पिछड़ी महिलाओं को , जिनका सारा समय खेतों में काम करने से लेकर घर की देखभाल में गुज़र जाता है , ना ही उनकी शिक्षा इस स्तर की है कि वो खुद से पढ़ सकें और अपने अधिकारों के बारे में जान सकें, इसके अलावां एक और अड़चन भी है जो उन्हें आगे आने से रोकती है और वो है पुरुष प्रधान समाज की दकियानूसी परंपरा हालाकी शहरी क्षेत्रों में इसकी महत्ता काफी हद तक कम हो गई है पर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी इसकी जड़ें काफी मजबूत हैं और इसी धारणा को दरकिनार कर महिलाओं को आगे लाने और उन्हें सशक्त बनाने की एक सराहनीय पहल "UNDP-IKEA" द्वारा "महिला सशक्तिकरण परियोजना" के माध्यम से की जा रही है.  समूह के माध्यम से महिलाओं को एक मंच पर लाना सामाजिक पहचान दिलाना, छोटी-छोटी बचत करवा कर आर्थिक रूप से मजबूती प्रदान करने से लेकर पंचायती चुनाव में उनकी ज्यादा से ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित करना और राजनितिक पटल पर उनकी  छवि को सुदृढ़ करना परियोजना का मुख्य हिस्सा है.
 इसी के तहत इन महिलाओं को ;उनके हक़ अधिकार की जानकारी के साथ-साथ महिलाओं के विकास सम्बन्धी विभिन्न तरह की योजनाओं , कानूनों की जानकारी देने के उद्देश्य से UNDP (UNITED NATIONS DEVELOPMENT PROGRAM) के तत्वाधान में सहयोगी संस्था RLEK(RURAL LETIGATION & ENTITLEMENT KENDRA) ने एक प्रशिक्षण का आयोजन किया सौभाग्य से मुझे भी इस प्रशिक्षण का हिस्सा बनने का मौका मिला प्रिशिक्षण के दौरान इन ग्रामीण महिलाओं के साथ समूह में बैठकर उनके मूल अधिकारों , कर्तव्यों के बारे में चर्चा करना विभिन्न प्रकार की विकास योजनाओं की जानकारी का आदान-प्रदान करना और कुछ ज्वलंत मुद्दों जैसे-घरेलू हिंसा, दहेज़ उत्पीडन आदि पर एक लम्बी बहस उनके अनुभवों को सुनना और इन बुराइयों से सम्बंधित कानूनों की जानकारी  देना एक सुखद अनुभव तो था ही पर कहीं न कहीं एस बात की भी  टीस रह रह कर मुझे अन्दर से झंझोड़ रही थी कि हमारे इस लोकतान्त्रिक ढांचे को खड़ा हुए इतने दशक बीत जाने के बाद भी हमारे समाज का कुछ तबका ऐसा भी है जहाँ महिलाओं की स्थिति बदतर और ये देख कर दुःख भी है के इतने उत्पीडन सहज ही पी जाने वाली महिलाओं को अपने हक़ - अधिकारों की जानकारी नाम मात्र की ही है. RLEK  द्वारा महिलाओं को उनके हक़-अधिकारों और उनसे सम्बंधित कानूनों को जमीनी स्तर पर बताना निश्चित तौर पर प्रसंशनीय है और समय के साथ RLEK का ये प्रयास ग्रामीण महिलाओं की ज़िंदगी को रोशन करने में कारगर सिद्ध  होगा.

समय आगे बढ़ता जा रहा है और बढ़ता ही जायेगा पर जरुरी ये है के इस बढ़ाते समय का दमन थामकर बदलाव भी होता रहे बदलाव इन महिलाओं की स्थिति में , बदलाव इनकी सामाजिक चेतना के स्टार पर ,. बदलाव आर्थिक स्वावलंबन की ओर , बदलाव राजनितिक पटल पर नेत्रित्व का . बदलाव हो रहा है और होता रहेगा और जिस दिन ये बदलाव अपने चरम पर पहुंचेगा निश्चित तौर पर इसकी रोशनी से सम्पूर्ण समाज प्रकाशमान होगा और UNDP-IKEA का यह सराहनीय प्रयास मील का पत्थर बनकर आगे की रह को एक निश्चित दिशा प्रदान करेगा. 
                  


                     

VIVEK KUMAR SRIVASTAVA
PROJECT CO-ORDINATOR
9554951250, 8081692336

Tuesday, February 8, 2011

अनोखी पाठशाला...


बुंदेलखंड क्षेत्र जिससे आप सभी वाकिफ होंगे कुछ समय पहले मुझे भी यहाँ  आने का मौका मिला ऐसे तो मै बहुत सी जगह जा चुका हूँ पर ये पहला मौका रहा जब मै किसी आदिवासी गाँव ( बिगाई, ललितपुर से ४५ किमी दूर )  में गया जो बाहरी दुनिया से काफी कटा हुआ है" यहाँ मै आया एक प्रशिक्षण शिविर के दौरान यहाँ आने से पहले मै, जिसे ये नहीं पता था कि आखिर इस प्रशिक्षण का क्या मकसद है और एक बात मेरे जेहन में हमेशा बनी रही वो ये कि मै यहाँ क्यूँ हूँ या मेरी मौजूदगी का यहाँ मतलब क्या है पर आज शायद मै यह कह सकता हूँ कि ना मैंने इस प्रशिक्षण के दौरान बहुत कुछ सिखा बल्कि एक ऐसे अनुभव को भी अपने साथ लेकर आया जो कहीं ना कहीं  मेरी ज़िन्दगी में कुछ रोशनी देगा.



                                           यूँ तो हर इंसान कि ज़िन्दगी में कुछ ना कुछ कमियां जरुर होती है पर यहाँ के लोगों कि स्तिथि अभावग्रस्त श्रेणी में आती है ऐसा नहीं ये लोग खुश नहीं हैं ये खुश हैं विकास की मुख्य धरा से काफी दूर फिर भी अपनी ज़िन्दगी में मस्त .यहाँ भी बच्चे स्कूल  जाते हैं पर तादाद बहुत कम है वजह कई शारी हैं पर मुख्य वजह आर्थिक है. जब चीथड़ों में जवानी  ढकी हो और बचपन अर्धनग्न हो तो "स्लेट और चाक " किस काम का फिर भी यहाँ के कुछ छात्र जो पढ़े लिखे हैं वो यहाँ की कामकाजी महिलाओं को पढ़ने का श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं . रोजाना दोपहर में २ घंटे की क्लास में घरेलु महिलाएं एक साथ यहाँ पढ़ने आती हैं और तो और इनके पढ़ने पढ़ाने का तरीका भी बिलकुल अलग है . ऐसे में मुझे भी 

इन महिलाओं को  
पढ़ाने का मौका मिला  हलाकि भाषा की थोड़ी दिक्कत
 जरूर रही पढ़ाने का ये अनूठा अनुभव काफी हद तक 
संतुष्टि  प्रदान करने वाला रहा. पहली बार अबेकस के
 माध्यम से गिनती सिखाना काफी रुचिकर तो था ही 
और जितनी रूचि से मै पढ़ा रहा था उससे कहीं ज्यादा
 रूचि उनके सिखाने में दिखी. सर्दी की धुप और पेड़
 की छाँव  में बैठ कर उनसे बातें करना उनका अनुभव
 जानना  और अपने ज्ञान को उनसे बांटना कहीं ना कहीं 
सुखप्रद तो रहा पर दुःख  की घटा भी घिरती रही छंटती रही.
आभाव कि जमीन पर सिखाने की ललक अपने को मुख्य धरा से जोड़ने की जुगत सराहनीय तो है पर कहीं ना कहीं  टीस है जो दृश्य पटल पर एक लकीर खींचती है ....लकीर जो दर्शाती है विकास और पिछड़ेपन की खाई कितनी गहरी हो चली है  . हालाजी इस खाई को पाटने का प्रयास जारी है पर इतनी गहराई को भरने में कितना समय लगेगा इसका अंदाजा शायद कोई ना लगा सके  पर आशा और उम्मीद की एक किरण अभी भी बाकी है जो शायद इस आभाव/कमी को दूर करने में सफल हो सके. 






VIVEK KUMAR SRIVASTAVA
PROJECT CO-ORDINATOR
9554951250, 8081692336

Friday, January 14, 2011

नया सवेरा-एक नई आस


 सदी का एक और सूर्यास्त हो गया , अनगिनत अनुभवों और खट्टे-मीठे पलों को अपने में आत्मसात कर अनंत सागार के पीछे कहीं जा छुपा और दे गया एक नया सवेरा - नयी उम्मीद , नयी उमंग और नए पलों की ऐसी अबूझ पहेली जो परत दर परत खुलेगी .
            हमने सूर्यास्त से पहले ना जाने  ख्वाब बुने कुछ पूरे हुए तो कुछ अधूरे ही रह गए, कितने बीज बोये कुछ अंकुरित हुए तो कुछ समय की गर्त में ही रह गए . ना जाने कितनी बार आखें नाम हुई और कितनी बार होठों पर मुस्कान खिली . ना जाने कितने अनजान चेहरे अपने बन गए और कितने ही अपने ग़म की परछाई बनकर दूर चले गए. हमने क्या खोया क्या पाया शायद इसका हिसाब हम ना लगा पायें पर हमने सदी के इस सूर्यास्त के अंतिम विदाई के लिए हाथ हिलाया दिलों में ग़म और ख़ुशी के अनूठे संगम को सजोते हुए .

सूर्यास्त तो हुआ पर एक नए सवेरे के आगाज़ के साथ नयी किरणों की एक चादर दूर क्षितिज तक फ़ैल गयी और जो ख्वाब अधूरे रह गए थे , जिन बीजों में अभी तक अंकुर नहीं फूटे थे अब उनके लिए ये नयी सुबह किरणों के रथ पर सवार होकर आई है और लाइ है नयी ताज़गी, नया जोश, और ढेर शारी आशाओं की किरण . जिस उत्साह से हमने सूर्यास्त को विदाई दी उसी उत्साह से नए सवेरे का स्वागत भी किया . हमारे आखों की चमक पहले से ज्यादा तेज़ हो गयी है , दिलों में ख्वाहिसों की लहरों  ने हिलोरे मारना भी शुरू भी कर दिया है शायद इसलिए कि यही समय है अधूरे ख्वाबों को पूरा करने का और बोये गए बीजों से प्रस्फुटित होते अंकुरों को देख कर आनंदित होने का. फिर भी कुछ पुरानी यादों की नमी अभी भी पलकों पर बिखरी है पर नई सुबह की नई रंगत ने होठों पर एक अनूठी मुस्कान खिला दी है.
नए साल की नई बहार ने मानो सभी को अपने में रंग दिया है. हममे  से बहुत से लोगों ने अनगिनत ख्वाबों की माला फिर से पिरोना शुरू कर दिया है, हमने  पहले  से ज्यादा जोश व  ताज़गी के साथ अपने कदम मंजिल की ओर बढ़ा दिए हैं कोहरे की धुंड से अलग हमारी मंजिल हमें सामने नज़र  भी आ रही है हमने रास्ते की परवाह करना भी छोड़ दिया है पर अभी तो ये शुरुआत है पहेली  की तो बस अभी एक परत ही खुली है समय की गर्त में मौजूद बाकी परतें खुलना अभी बाकी है और जैसे- जैसे वो खुलेंगी हमें क्या देंगी और उसके बदले में हमसे क्या-क्या लेंगी इसका अंदाजा भी लगा पाना मुश्किल है पर एक बात जो सार्वभौमिक सत्य है कि समय का चक्र चलता जायेगा और फिर एक सूर्यास्त होगा हम फिर उसकी विदाई में जशन मनाएंगे और एक नए सवेरे के स्वागत में अपनी पलकें बिछायेंगे.




VIVEK KUMAR SRIVASTAVA
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Sunday, December 12, 2010

समां : अमन-चैन की

      मै क्या हु, कौन हूँ? और मेरा अस्तित्व क्या है या फिर मेरा मकसद क्या है ?, ये मै नहीं जनता बल्कि मुझे आकर और जन्म देने वाला ही जनता है. संछेप में -- मै बम हूँ यही मेरा परिचय है, अब आपको उपरोक्त सभी प्रश्नों का जवाब मिल गया होगा पर मेरा मकसद किसी को आहत करना या किसी की ज़िन्दगी लें नहीं है, मै तो बना ही हूँ फटने के लिए या फिर यूं कहें मुझे बनाया ही गया है मानवजाति को मरने के लिए, मै स्वयं किसी का दुश्मन नहीं बल्कि दुश्मन तो वो लोग हैं जो मेरा इस्तेमाल अपने घिनौने मकसद को अंजाम देने के लिए करते हैं. चाहे शीतालाघाट(varanasi) हो या इससे पहले की कोई घटना जिसमे मैंने ना जाने कितनी जिंदगियों को मौत की नींद सुला दिया इसका मुझे दुःख है पर मै करता भी क्या , जिन हांथों में था उन्होंने मुझे इस नापाक काम को अंजाम देने के लिए चुना. मै ये नहीं समझ पता मानवजाति, मानवजाति की दुश्मन क्यूँ? क्यों ये लोग अपने ही जीवन का सर्वनाश अपने ही हांथों करते हैं.
                          मैंने फटने से पहले देखा शीतालाघाट का वो मनोरम दृश्य , गंगा आरती में सम्मिलित हज़ारों की भीड़ जिसमे सभी धर्म-जाती और उम्र के लोग तल्लीन थे ना कोई डर ना कोई भय, कोई द्वेष-भाव का वातावरण भी नहीं, सभी भक्ति में मग्न. पर जिनके इरादे ही नापाक हों ,संवेदनाओं का जिनमे abhav हो , और जिनमे सिर्फ नफ़रत ही भरी हो वो भला इस सुन्दरता को क्या देखते उनको तो बस एक  ही रंग पसंद है रक्त का, एक ही आवाज़ ही पसंद है--चीख-पुकार और रोटर बिलखते लोगो की. उनके इसी बात को अंजाम देने के लिए मै वहां मौजूद था और मैंने उसे बखूबी अंजाम भी दिया ना चाहते हुए भी पर मै कर भी क्या सकता था -- मै तो बना या बनाया ही गया हूँ फटने के लिए.  मै तो अब नहीं हूँ पर सोचता हूँ कि इस सम्पूर्ण मानवजाति के कुछ बाशिंदे मेरा इस्तेमाल अपनी ही जाती के लोगों का लहू बहाने जैसे घ्रणित कार्य करने में कैसे और क्यों करते हैं? पर ये देख के सुकून मिलाता है कि कुछ ऐसे नेक दिल बाशिंदे भी हैं जो आँखों में आंसू और हांथों में मोमबत्ती लिए अमन-चैन कि प्रार्थना करते हैं . उन नेक दिल बन्दों के दिलों में ग़म और जो ज़ख्म गहराई तक उतार दिए गए हैं वो सायद कभीभर ना सके पर उनके हौसले और दिलों में जीने की चाह हमेशा बरक़रार रहेगी .
शीतालाघाट पर आज भी गंगा आरती होती है और आगे भी होती रहेगी और ये सबसे बड़ा तमाचा उन लोगों पर है जो अमन-चैन को कायम होने में खलल पैदा करते हैं . "जिनके दिलों में ऐसी घटनाओं के ज़ख्म हैं और जो रह-रह कर हरे हो जाते हैं उनके ग़म कम हो ना हों , उनकी आखों से बहते आंसू सूखे या ना सूख पायें पर उनकी जलाई अमन-चैन की समां हमेशा जलती रहेगी.